इस आर्टिकल मैं आपको एक ऐसे वीर योद्धा के बारे में बताने जा रहा हूं जो सिर्फ नाम का ही सिंह नहीं था बल्कि उससे असली शेर भी डरा करते थे – हरि सिंह नलवा की जीवनी और सम्पूर्ण वीरगाथा.

भारत के इतिहास में ऐसे कई वीर योद्धा हुए हैं जिनके सिर्फ नाम से ही दुश्मन कांप जाते थे. इनकी वीरगाथा हम सभी बचपन से ही सुनते पढ़ते आ रहे हैं। लेकिन कुछ वीर योद्धा ऐसे भी हैं, जिनके बारे में हमारे इतिहासकारों ने हम भारतवासियों को बताना जरूरी नहीं समझा.
आज मैं आपको भारत के वीर सपूत हरि सिंह नलवा की वीरता की कहानी बताने जा रहा हूं, जिसने पूरे अफगानिस्तान को ही हिलाकर रख दिया था.
ये उन दिनों की बात है, जब अफगानिस्तान से आने वाले शासकों से पूरा भारत डरा करता था.
हरि सिंह नलवा महाराजा रंजीत सिंह के सेना अध्यक्ष थे जिन्होंने अफ़गानों और पठानों के खिलाफ कई जंगो का नेतृत्व किया, और विजय भी रहे.
कश्मीर पर विजय प्राप्त कर हरि सिंह नलवा ने अपनी वीरता और पराक्रम का लोहा पूरे भारतवर्ष में बनवाया, इतना ही नहीं हरि सिंह ने काबुल पर चढ़ाई कर अफ़गानों से उनकी राजधानी तक छीन ली.
खैवर पास से होने वाले अफगान आक्रमणों पर अंकुश भी लगाया, उस समय खैवर दर्रे के रास्ते ही अफगानी हिंदुस्तान पर आक्रमण किया करते थे.
हरि सिंह नलवा का बचपन
हरि सिंह नलवा का जन्म 1791 में संयुक्त पंजाब प्रांत के गुजरावाला में हुआ था. हरि सिंह के पिता का नाम गुरुदयाल सिंह और मां का नाम धर्मा कौर था.
लेकिन हरिसिंह जब 7 वर्ष के थे तो उसके सर से पिता का साया उठ गया, पर कहते हैं ना दोस्तों होनहार वीर वान के होते चिकने पात हरि सिंह बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखने लगे थे.
10 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पंजाब का ये शेर घुड़सवारी, मरसालर्ट, तलवार और भाला चलाने में निपुण हो गया था.
1805 में वसंतोत्सव के मौके पर महाराजा रंजीत सिंह ने एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसमें हरी सिंह नलवा ने भाला चलाने चलाने, तीर चलाने और घुड़सवारी जैसी विधाओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया, इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया.
हरि सिंह नलवा का शेर से सामना
हरि सिंह के सेना में भर्ती होने के कुछ दिन बाद रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार के लिए गए, उनके साथ कुछ सैनिक और हरिसिंह भी थे.
उसी समय एक बाघ में महाराज पर हमला कर दिया, बाघ के अचानक हमले से रंजीत सिंह समेत सभी सैनिक डर गए, लेकिन हरि सिंह बाघ से लड़ पड़े और देखते ही देखते हरी सिंह ने बाघ के जबड़ो को अपने हाथों से पकड़कर बीच में से चिर डाला.

इस बहादुरी को देखकर रंजीत सिंह ने कहा तुम तो राजा नल सिंह जैसे बलशाली वीर हो और उसी समय से हरि सिंह नाम के साथ नलवा शब्द जुड़ गया, और वह हरि सिंह नलवा के नाम से प्रसिद्ध हो गए.
हरि सिंह नलवा का राजनितिक जीवन
पहले तो रंजीत सिंह ने हरी सिंह को 800 घुड़सवार सैनिकों का सेनानायक बना दिया, इसके बाद हरि सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह के लिए 20 से ज्यादा लड़ाईयों में सेना का नेतृत्व किया.
उन्होंने 1813 में अटक, 1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर और 1823 में पेशावर को महाराजा रंजीत सिंह की रियासत में मिला लिया.
इसके बाद सारे अफगान शासक हरि सिंह से ख़ौफ़ खाने लगे, जब जब हरि सिंह जंग के मैदान में उतरते और अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर दुश्मन सैनिकों के सिर कलम करना शुरू करते तो दुश्मन डर के मारे बिना लड़े ही भाग जाते थे.
हरि सिंह नलवा को लोग महान वीर योद्धा मानते थे और उनकी तुलना अंग्रेज नेपोलियन से किया करते थे.

उनकी बहादुरी की वजह से उन्हें सरदार की उपाधि भी दी गई, सरदार हरी सिंह नलवा ने खैवर दर्रे की सीमा की हमेशा बहादुरी से रक्षा की, अफगान आक्रमणकारी नियमित रूप से इस क्षेत्र में हमले करते रहते थे, हरि सिंह के जीते जी अफगान कभी भी इससे आगे नहीं बढ़ पाए.
हरिसिंह ने अफगानों से रक्षा के लिए जमरूद में एक मजबूत किले का निर्माण भी करवाया था.
Also Read: पानीपत की लड़ाई कब और कैसे हुई
30 अप्रैल 1837 को जमरूद पर एक भयंकर आक्रमण हुआ, हरि सिंह उस समय बीमार चल रहे थे फिर भी उन्होंने युद्ध में भाग लिया.
उन्होंने अफगानों से उनका असला बारूद छीन लिया, परंतु लड़ते-लड़ते हरि सिंह बुरी तरह से घायल हो गए और वे वीरगति को प्राप्त हुए, मगर हरिसिंह की रणनीति उनके मरने के बाद भी काम करती रही और उनकी मृत्यु के बावजूद अफगान पेशावर पर कब्जा नहीं कर पाए.
यह थी भारत के वीर सपूत हरी सिंह नलवा की वीरता की कहानी. उम्मीद है आपने इस पोस्ट से कुछ नया जरूर सीखा होगा.
अब आपकी बारी शेयर कीजिए- हरि सिंह नलवा की कहानी
यदि यह कहानी आपके किसी दोस्त या रिश्तेदार के काम आ सकती है तो इसे Whatsapp और Facebook पर जरुर शेयर करे.
आपका कीमती समय निकलकर इस आर्टिकल को पढने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, ईश्वर करे आपका दिन शुभ हो.